Tuesday, January 03, 2006

कोटपीस

(कविता के बारे में: यह कविता मैंने ७वी कक्षा में लिखी थी। एक हास्य कविता के रूप में प्रस्तुत यह कविता काका हाथरसी की कविताओं की शैली से प्रभावित है। बचपन से ही काका मेरे पसंदीदा हास्य-कवि रहे हैं और ये उन्हें मेरी श्रद्धांजलि है।)

एक-एक पैसा जोरि के, मोटा कोट सिलाएँ,
उसे पहन फिर दावत में, सर उँचा कर जाएँ।
सर उँचा कर जाएँ, दाम बोलें वैसा,
हीरे जड़े उस पर चुनकर ऐसा।
चुनकर ऐसा, यदि दिखे दूजे पास,
कहिं अक्ल तेरी गई चरने घास।
चरने घास, अगर हो वह हट्टा-कट्टा,
मूँछ तानकर दिखला जैसे वह अभी है बच्चा।
अभी है बच्चा, अगर अक्ल मोटी दिखे,
कुछ गुर हमसे अब और सीखें।
और सीखें, सिर पर चढ़ जाओ ऐसे,
ऐरावत के ऊपर इन्द्र भगवान हों जैसे।
भगवान हों जैसे, सिर पर बजाएँ तबला,
घोड़े भाग उठें छोड़ अपना तबेला।
अपना तबेला, इस पर यदि घूँसा खाएँ,
दुआ करें तब परम-पिता भगवान बचाएँ।

-अम्बुज सक्सेना

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