Tuesday, January 03, 2006

बादल

(कविता के बारे में: यह कविता मैंने आठवी कक्षा में लिखी थी तथा मेरे लेखन की सर्वोत्तम कृति है। इतना के जब मैंने इसे स्कूल की वार्षिक पुस्तिका में छपवानें के लिये दिया तो मुझे करीब १५ मिनट तक एक वरिष्ठ अध्यापक को यह समझाना पड़ा के यह मेरी स्वयं की रचना है।)

बादल, वरिद, जलधर, नाम पाए इनने अनेक,
तीव्र गति से कर्म करते, राहत पाएँ अनेक।
सतरंगी इन्द्रधनुष के जनक पिता हैं ये,
सप्त अश्व रथ तेजस्वी सूरज की छटा छुपाते ये।
रूप-स्वरूप, आकार गठन से बंधन मुक्त हैं ये,
दीन-दुखी किसानों के मन नव ज्योति जगाते ये।
रस-आकुल पपीहे की ये प्यास बुझाते,
बाल मन को टटोलकर ये उत्साह जगाते।
गर्म बालू को अंदर तक ये शीतलता पहुँचाते,
इनकी घन-गरज के आगे शेर भी कुछ न कर पाते।
इनके बिना संसार की कल्पना न हो पाए,
इनके बिना हर प्राणी जीव 'त्राहि-त्राहि' चिल्लाए।

-अम्बुज सक्सेना